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    चल मूर्ति के रूप में स्थापित है कालिका माता मंदिर:सूर्य देव के लिए आठवीं शताब्दी में बनाया गया था, आज रणरूपी मां काली है विराजित

    1 month ago

    चित्तौड़गढ़ दुर्ग के पूर्वी भाग में, रानी पद्मिनी महल के पास स्थित कालिका माताजी मंदिर अपनी अनोखी परंपराओं और स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यहां स्थापित चल मूर्ति है। यह मूर्ति स्थायी रूप से प्रतिष्ठित नहीं की गई है, बल्कि इसे "चल मूर्ति" के रूप में ही पूजा जाता है। मां सिंह पर विराजित हैं और उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें खड़क, खप्पर, डमरू और प्याला सुशोभित हैं। भक्त मानते हैं कि मां कालिका की यह मूर्ति आज भी जीवंत और चलायमान है। आज नवरात्रि का आखिरी दिन है। कालिका माता मंदिर में हजारों भक्त दर्शन के लिए आते है। जानते है अब कलिका माता मंदिर के बारे में..... कालिका माता मंदिर का निर्माण भी अपनी शैली में बेजोड़ है। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है और उस समय "लैतीन शैली" का प्रचलन था। इसी कारण यह मंदिर भी संभवतः लैतीन शैली में बना हुआ है। मंदिर का स्वरूप भव्य है जिसमें एक बरामदा, विशाल सभा मंडप और बड़ा गर्भगृह शामिल है। सभा मंडप स्तंभों से सजा हुआ है और इन स्तंभों पर बारीक नक्काशी की गई है। गुंबद को टिकाने वाले पत्थरों पर उस दौर की कला की झलक मिलती है। चूना पत्थर पर की गई बारीक नक्काशी में बेल-बूटे और पत्तों के पैटर्न देखने को मिलते हैं। सात घोड़ों पर सवार सूर्य देव की मूर्ति है अंकित मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर आज भी सूर्य की मूल प्रतिमा के चिन्ह मौजूद हैं। सूर्य के सात घोड़ों वाले रथ पर अश्विनी देवता के साथ उनकी मूर्ति द्वार के ऊपर दिखाई देती है। उनके साथ शिव, विष्णु और इंद्र की प्रतिमाएं भी अंकित हैं। हालांकि सूर्य की मुख्य मूर्ति अब मंदिर में नहीं है, लेकिन स्तंभों पर सूर्य देव की छवियां और नक्काशी यह साबित करती हैं कि यह स्थान कभी सूर्य मंदिर था। मंदिर के सामने सूर्यकुंड भी बना हुआ है और इसकी दिशा पूर्वाभिमुखी है। इस कारण रोज सुबह सूर्य की पहली किरण सीधे गर्भगृह तक पहुंचती है। यह सभी इस बात का प्रमाण देते है कि यह मंदिर पहले सूर्य मंदिर हुआ करता था। जीर्णोद्धार के बाद यहां कालिका माता की मूर्ति को किया स्थापित मंदिर के महंत राम नारायण पूरी बताते हैं कि यह स्थान मूल रूप से सूर्य देव का मंदिर था जिसे आठवीं शताब्दी में सिसोदिया वंश के संस्थापक बप्पा रावल ने बनवाया था। लेकिन समय के साथ जब मुगलों ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया तो उन्होंने मंदिर और प्रतिमाओं को खंडित कर दिया। कई सालों तक यह मंदिर उसी स्थिति में रहा। 14वीं शताब्दी में जब महाराणा हमीर सिंह ने दुर्ग पर फिर से अधिकार किया तो नगरवासियों के सहयोग से मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इसी दौरान मां भद्रकालिका की प्रतिमा स्थापित की गई और मंदिर का नाम कालिका माताजी मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। बताया जाता है कि महाराणा हमीर सिंह को मां कालिका ने सपने में दर्शन दिए थे और उन्होंने उसी स्वरूप में प्रतिमा को बनाकर स्थापित किया था। 16वीं शताब्दी में महाराणा लक्ष्मण सिंह ने मंदिर में अखंड ज्योत प्रज्वलित की जो आज भी गर्भगृह में निरंतर जल रही है। मेवाड़ की इष्ट देवी के रूप में पूजा जाता है मंदिर के महंत राम नारायण पुरी बताते हैं कि मां कालिका को पूरे मेवाड़ की महारानी और रक्षक देवी माना जाता है। सिसोदिया राजवंश ने उन्हें अपनी इष्ट देवी स्वीकार किया। यही कारण है कि राजस्थान ही नहीं, दूर-दराज़ के क्षेत्रों से भी श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते हैं। महंत ने बताया कि जब भी राजवंश का शत्रु के साथ युद्ध होता, तो मान्यता रही है कि मां कालिका की मूर्ति को राजा अपने साथ युद्धभूमि में ले जाते थे। उस समय मंदिर खाली हो जाता और वहां पूजा-अर्चना संभव नहीं रहती। मंदिर के सूना पड़ने से बचाने के लिए बाद में महाराणा सज्जन सिंह ने मंदिर परिसर में माता अम्बे की प्रतिमा भी स्थापित करवाई। नगरवासियों और राजपरिवार ने मिलकर माता अम्बे की भी धूमधाम से पूजा की, लेकिन मंदिर की प्रसिद्धि आज भी "कालिका माता मंदिर" के नाम से ही है। मंदिर परिसर में ही बने है 12 ज्योतिर्लिंग और काल भैरव मंदिर परिसर में केवल कालिका माताजी ही नहीं बल्कि काल भैरव और 12 ज्योतिर्लिंग भी स्थापित हैं। यहां आने वाले श्रद्धालु एक ही स्थान पर मां कालिका के साथ शिव के बारहों स्वरूपों के दर्शन कर पाते हैं। यह विशेषता इस मंदिर को और भी पवित्र और अद्वितीय बनाती है। इसके अलावा माता जी की मूर्ति के सामने और मंदिर परिसर में ही शिवलिंग बना हुआ है। आज भी अष्टमी पर राज परिवार द्वारा दी जाती है हवन में पूर्णाहुति नवरात्रि में इस मंदिर का महत्व और भी बढ़ जाता है। महंत राम नारायण पुरी के अनुसार आज भी नवरात्रि की अष्टमी पर चित्तौड़गढ़ के महाराणा द्वारा मंदिर में हवन की पूर्ण आहुति दी जाती है। यह परंपरा सैकड़ों सालों से निरंतर चल रही है। आज नवरात्रि का आखिरी दिन है। आज भी हजारों भक्त मां के दर्शन के लिए आएंगे। स्थापत्य कला का है उदाहरण संग्रहालय अधीक्षक हिमांशु सिंह बताते हैं कि यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से जरूरी है, बल्कि स्थापत्य कला का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। यहां के स्तंभ, नक्काशी और संरचना गुप्तकालीन कला की याद दिलाते हैं। खंभों पर अंकित चित्रों में देवी-देवताओं को सूर्य देव की पूजा करते हुए दिखाया गया है। इससे यह प्रमाणित होता है कि मूल रूप से यह एक सूर्य मंदिर था।
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